व्यंग्य मत बोलो
काटता है जूता तो क्या हुआ।
पैर में न सही सर पर रख डोलो
व्यंग्य मत बोलो
अंधों का साथ अगर हो जाए तो
आंखे बंद कर लो
जैसे सब टटोलते हैं
राह तुम भी टटोलो
व्यंग्य मत बोलो
क्या रखा है कुरेदने में
हर एक का चकव्यूह कुरेदने में
सत्य का निरस्त टूटा पहिया लेकर
लडने से अच्छा है
जैसी दुनिया है वैसी हो लो
व्यंग्य मत बोलो
भीतर कौन देखता है
बाहर रहो चिकने चिकने
यह मत भूलो यह बाजार है
और सभी यहां आये हैं बिकने
राम राम कहो
और माखन मिसरी घोलो
सवेशवर दयाल सक्सेना
सितम्बर 21, 2007
व्यंग्य मत बोलो
सितम्बर 7, 2007
राखी
पत्नि पति से : उठिये न चलना नहीं है क्या। पति ने पत्नि को एक नजर देखा। पत्नि के गीले बालों से कुछ बूंदे पति की आंखों में पडे। पति ने पत्नि को बांहों में भर लिया। तभी फोन की घंटी बजी और पत्नि कैद से छूट कर पति को चिढाने लगी। पति ने फोन उठाया।
“भैया मैं रिंकी बोल रही हूं। आप आ रहे हैं न राखी बंधवाने “
भाई के चेहरे की मुस्कान अचानक उड गयी।
“वो वो रिंकी एकचुअली शिल्पा के भैया कल रात को ही अमेरिका से आये हैं। और तुम तो जानती ही हो कि उसके भैया छ साल के बाद आयें हैं और आज राखी का दिन भी है तो”
“भैया पर मेरे भी तो आप एक ही भाई हो।”
“कोई बात नहीं मैं अगले साल आ जाउंगा। ठीक है बाय”
पत्नि सामने आ चुकी थी।पत्नि की खूबसरती देखकर पति के हाथ से रीसीवर छूट गया।
सितम्बर 6, 2007
रात
जादूगर
छिलते कटते चोट खाते
हाथ पांव उंगलियां फोडते
हम शहर के चौराहे पर खडे हो जाते।
हर दोपहर थोडे और बडे हो जाते।
स्कूली कपडे उतारकर उस
गोल सी भीड में शामिल हो जाते।
छू मंतर से वो जादूगर
किसी के सिर से किसी का धड जोड देता।
और किसी की जेब से बटुआ उडाकर
किसी की जेब में डाल देता।
उसकी छोटी सी मुटठी में
पूरी कायनात कैद होती।
आज ढूढता हूं उस जादूगर को
शहर दर शहर
मगर वो नहीं मिलता कहीं
सोचा था कि जो खत उसने
मुझे वापस कर दिये थे
शायद मेरा जादूगर उसे
फिर से उसे दे आए।
पर सुना है अब वो ये हुनर भूल गया है।
और आंखें उसकी धुंधला गयी हैं।
सितम्बर 5, 2007
तुम क्या जानो
तुम क्या जानो कैसे सजती है
बूंदों की महफिल।
तुम क्या जानो सीप से कैसे
मिलती हैं बूंदे।
मिटटी के रेले में
कैसे बह जाते हैं
सूखे रेत को टीले।
धुल जाती है कैसे
चपटी रेल की पटरियां।
पत्तों की छुअन से कैसे
लजा जाती हैं बूंदें।
शाखें अपनी मस्ती में
झूलने लगती हैं झूले।
तुम तो बस जरा सी बारिश से
घबराकर बंद कर लेती हो दरवाजे।
छींटों से बचने की खातिर
बंद कर लेती हो खिडकियां
और फशॆ पर सजा देती हो
पायदानों के गुलदस्ते
संभल संभल कर चलती हो
कि कहीं फिसल न जाए पांव
कोई मजदूर लगती हो ढूढने जब
दीवारों में पडते सीलन से हो जाती हो परेशान
इतना सब करने को बाद भी
तुम रहती हो बेवजह परेशान।
कभी यूं ही
जब बच्चे थे तब भी नहीं।
यूं कि खेलकूद में सारा दिन बीत जाता।
थोड़े बडे हुए तो किताबों ने खाली लम्हों को छीन लिया।
जब दुनिया समझने लगे तो और थोडा और समझने के फेर में वक्त बीत गया।
फिर तो बस जिन्दगी ने जो रफ्तार पकडी कि बस चलते चले गये।
गुलजार के गीत दिल ढूढता है से थोडी तसल्ली मिल जाती है पर असल में फुसॆत कभी नहीं मिली।
थक हार कर बंटी बबली से एक शहर फुसॆतगंज किराये पर ले ली। आजकल मैं यहीं रहता हूं
बिल्कुल फुसॆत में।